और कर भी क्या सकते हैं हम…!

दुशकर्म,रेप,ज़िंदगी,कवि,कविता,

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मौमबत्ती लेकर हाथ में,
कुछ देर ग़म के साथ में …
थोड़ा शोक जताने में ऐतराज़ नहीं रखते हम…!

होंगे हम सैंकड़ों जब हैवानियत वो उठाएेंगे,
होंगे हम सैंकड़ों जो पास से गुज़र जाऐंगे…
फिर आज उसकी फोटो देख…कैसे ठहर सकते हैं हम ???
क्या करें ! और कर भी क्या सकते हैं हम…!

कुछ वीडियोज़ बनाकर अपलोड कर देंगे…
कुछ भूख हड़ताल  कर उनकी फांसी की माँग करेंगे …
फिर कुछ पल जताऐंगे, कितने दर्द में हैं हम…

दुपट्टा उतरते देख सकते हैं…
इज़्ज़त लुटते देख सकते हैं…
फिर अब सर झुका कर क्यूँ खड़े हैं हम ???
क्या करें ! और कर भी क्या सकते हैं हम…!

इतना दम दिखाऐंगे कि बसों, रेलगाड़ियाें के शीशे फोड़ देंगे !
और कितने गरीबों मासूमों की दुकानें तोड़ देंगे…
बस ज़रूरत के वक्त ही तो डर सकते हैं हम !

कोई आगे नहीं आया, वो घुट घुट कर मर गई…
वो चाकू से नहीं, हमारे झूठे किरदार देख मर गई…
शा़यद मेरी तरह अब कुछ पंक्तियां ही लिख सकते हैं हम !
क्या करें ! और कर भी क्या सकते हैं हम…!

हम वही माँ-बाप हैं जो अपने बच्चों को अच्छाई सिखाते हैं…
हम वही गर्म पीड़ी हैं जो गलफैंड की छोटी सी बात पर मर मिट जाते हैं…
यकीं नहीं आता… वहाँ  ज़िंदा लाश! कैसे बने रहे हम…
क्या सच में कुछ नहीं कर सकते थे हम ???
भीख माँगते ज़िंदगी की,
मर गऐ कितने लोग आँखों के सामने…
समझ नहीं पाया हूँ अब तक…
कि किस हुनर से ख़ुद को ‘ इन्सान ‘ कहते हैं हम…

-संकल्प